सीधी जिले के चुरहट क्षेत्र के बड़खरा गांव में एक ऐसा मार्मिक दृश्य सामने आया जिसने सभी की आंखें नम कर दीं। यह कोई साधारण विवाह नहीं था, बल्कि एक ऐसी बेटी की विदाई थी, जिसे जन्म नहीं दिया गया था, मगर एक शिक्षक ने अपनी संतान से भी बढ़कर पाला, पोसा और आज कन्यादान कर समाज को एक नई मिसाल दी।
ललिता कोरी, जिसने अपने जीवन की शुरुआत में ही एक गहरी त्रासदी झेली। जब वह महज दो साल की थी, तब उसके माता-पिता – मां श्यामकली और पिता रामचंद्र कोरी – का निधन हो गया। ऐसे में जब गांव के लोग उसके भविष्य की जिम्मेदारी उठाने से कतरा रहे थे, तब उसके पड़ोसी और गांव के शिक्षक पुष्पराज सिंह ने आगे बढ़कर एक ऐसा काम किया, जो बहुत कम लोग कर पाते हैं। उन्होंने ललिता के साथ-साथ उसके बड़े भाई और छोटी बहन को भी अपने घर में स्थान दिया और उन्हें एक पिता की तरह पालना शुरू किया।
पुष्पराज सिंह ने सिर्फ बच्चों को खाना-कपड़ा और आश्रय नहीं दिया, बल्कि शिक्षा, संस्कार और आत्मनिर्भरता की भी राह दिखाई। उन्होंने सिलाई-कढ़ाई और अन्य कौशल विकास के प्रशिक्षण दिलवाकर यह सुनिश्चित किया कि ये बच्चे भविष्य में खुद के पैरों पर खड़े हो सकें।
समय बीता, ललिता सयानी हुई। और जब उसके विवाह की बात आई, तो शिक्षक पुष्पराज सिंह ने एक बार फिर अपने दायित्व को निभाया — बेटी का कन्यादान किया, ठीक वैसे ही जैसे एक सगा पिता करता है। विवाह सीधी के पडऱा गांव निवासी गोपाल कोरी से बढ़ौरा शिवमंदिर में पूरे रीति-रिवाज़ और धूमधाम से संपन्न हुआ। इस विवाह में गांव के लोग, शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और अन्य प्रतिष्ठित लोगों ने हिस्सा लिया।
विदाई के समय का दृश्य बेहद भावुक था। ललिता अपने ‘बाबा’ पुष्पराज सिंह से अलग होने के ख्याल मात्र से फूट-फूटकर रोने लगी। गांव के लोग, जो इस पूरे सफर के गवाह रहे, उनकी आंखें भी भर आईं। यह एक ऐसा पल था जिसने दर्शाया कि रिश्ता खून से नहीं, भावना और कर्तव्य से जुड़ता है।
इस कहानी में एक और विशेष बात यह है कि ललिता एक दलित परिवार से थी, और पुष्पराज सिंह ने बिना किसी भेदभाव के उसे अपने परिवार में अपनाया। उन्होंने सामाजिक समरसता का भी उदाहरण प्रस्तुत किया — कि इंसानियत जात-पात से ऊपर होती है।
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